भारत की दुविधा भी गजब की है। एक तरफ रेलें, मेट्रो, हवाई जहाज, दफ्तर, बाजार और कल-कारखाने खुल रहे हैं और दूसरी तरफ कोरोना की महामारी बढ़ती चली जा रही है। खुद भारत महामारी से महत्तममारी की तरफ दौड़ रहा है। इस दौड़ में उसने दुनिया के ज्यादातर देशों को मात कर दिया है। बस ब्राजील उसके पीछे है और अमेरिका उसके आगे है। ब्राजील और भारत में संक्रमित लोगों का आंकड़ा 41 लाख के आस-पास है लेकिन कल तक भारत में ब्राजील से 73000 मामले ज्यादा हो गए। यदि महामारी की रफ्तार भारत में इतनी तेज रही तो जल्दी ही अमेरिका के 60 लाख 40 हजार के आंकड़े को भी वह पीछे छोड़ देगा। इस समय भारत में प्रतिदिन संक्रमित होनेवालों की संख्या एक लाख को छूने ही वाली है।
इसमें शक नहीं कि इस महामारी का मुकाबला करने के लिए भारत सरकार और प्रांतों की सरकारें जी-जान से जुटी हुई हैं। कोरोना की जांच का आंकड़ा 10 लाख रोजाना तक पहुंच गया है। अब तक 5 करोड़ से ज्यादा लोगों की जांच हो चुकी है लेकिन 138 करोड़ की आबादीवाले देश में जांच की यह रफ्तार चलती रहे तो भी सबकी जांच में बरसों खप जाएंगे। उसके काफी पहले ही रोग-निवारक टीका आने की संभावना है। इस बीच आशाजनक खबर यह है कि हमारे देश में कोरोना से मरनेवालों की संख्या प्रतिशत के हिसाब से बहुत कम है। यह ठीक है कि सारी दुनिया में पिछले हफ्ते कोरोना के नए मामले 31 प्रतिशत बढ़े हैं तो भारत में उनकी बढ़त 24 प्रतिशत रही। दो माह पहले वह सिर्फ 14 प्रतिशत थी। भारत में कोरोना से मरनेवालों का प्रतिशत सिर्फ 1.7 है जबकि सारी दुनिया में 3.2 प्रतिशत है।
जनसंख्या के हिसाब से अमेरिका में ज्यादा लोग मर रहे हैं। अमेरिका की जनसंख्या भारत की एक चौथाई है और वहां की स्वास्थ्य-सेवाएं भारत से कई गुना बेहतर हैं। फिर भी वहां ज्यादा अनुपात में लोग इसीलिए मर रहे हैं कि एक तो राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का रवैया काफी गैर-जिम्मेदाराना रहा है और दूसरा, अमेरिकी जनता में आत्म-विश्वास की अति भी इस रोग के फैलने का मुख्य कारण है। जैसे ट्रंप मुखपट्टी नहीं लगाते हैं, वैसे ही हजारों अमेरिकी नर-नारी समुद्र-तटों पर घूमते हुए नजर आते हैं।
आत्म-विश्वास की अति और लापरवाही हमारे यहां भी कम नहीं है। इसीलिए भारत में भी कई बड़े-बड़े नेता, फिल्मी सितारे, डाक्टर और नर्सें भी कोरोना के जाल में फंस गए हैं। फरवरी-मार्च में तो यह महामारी सिर्फ दिल्ली और मुंबई जैसे कुछ बड़े शहरों में दिखाई पड़ी लेकिन अब तो वह कस्बों और गांवों तक फैल गई है। अचानक तालांबदी की घोषणा के कारण शहर छोड़कर अपने गांवों की तरफ भागते हुए मजदूर इसे अपने साथ लेते गए। अब ज्यों-ज्यों जांच उन तक पहुंच रही है, मरीजों की संख्या बढ़ती चली जा रही है।
लेकिन संतोष का विषय है कि इलाज़ से ठीक होनेवालों की संख्या भी काफी अच्छी है। यदि भारत में 100 लोगों को कोरोना होता है तो उनमें से 76-77 लोग रोज़ ठीक हो जाते हैं। कोरोना के इलाज के लिए भारत में क्या-क्या नहीं हो रहा है? असरदार टीके (वेक्सीन) की खोज तो जोरों से चल ही रही है, आयुष मंत्रालय और अन्य कई आयुर्वेदिक संस्थानों ने तरह-तरह के सस्ते और सुलभ क्वाथ (काढ़े) जारी किए हैं। होम्योपेथी के डाॅक्टर भी चुप नहीं बैठे हैं। लाखों-करोड़ों लोग आसन, प्राणायाम और व्यायाम के जरिए भी कोरोना का प्रतिरोध कर रहे हैं। क्या यह कम संतोष का विषय है कि टीके के बिना ही हमारे डाक्टरों ने कोरोना की तात्कालिक काट कुछ हद तक निकाल रखी है।
यह तो स्पष्ट है कि देश में कोरोना बढ़ रहा है लेकिन उसका डर घट रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या लोग सड़कों, बाज़ारों, दफ्तरों, कारखानों, रेलों और बसों में दिखाई पड़ते ? लेकिन सबसे बड़ी चिंता का विषय यही है कि देश की अर्थ-व्यवस्था लड़खड़ा गई है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 29 प्रतिशत की गिरावट हो गई है। कुछ आंकड़ों के अनुसार लगभग दस करोड़ लोग बेरोजगार हो गए हैं और दो करोड़ लोगों की नौकरियां चली गई हैं। दुनिया के कई अन्य मालदार देशों में, जहां यह महामारी भारत से अधिक जानलेवा रही है, वहां भी उनकी अर्थ-व्यवस्थाओं में 10-15 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट नहीं आई है। हमने ब्रिटेन को भी मात कर दिया है, जहां की जीडीपी की गिरावट 20 प्रतिशत है। लेकिन समृद्ध देशों की सरकारें गैर-सरकारी संस्थानों के कर्मचारियों की 80 प्रतिशत तनख्वाहें खुद दे रही हैं। भारत सरकार ने भी अपने वंचित वर्गों के लिए ‘‘बड़ी-बड़ी राहतों’’ की घोषणाएं की हैं लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही हैं।
यह ठीक है कि अब बाज़ार खुलने लगे हैं और कारखाने चलने लगे हैं लेकिन ग्राहक कहां हैं ? दुकानों का माल खरीदेगा कौन ? लोगों की जेबें खाली हैं। देश में 70-80 करोड़ लोग तो ऐसे हैं, जिनके पेट भी खाली हैं। वे रोज़ कुआं खोदते हैं और पानी पीते हैं। यदि सरकार और समाज ने उनकी खबर नहीं ली तो देश में अराजकता फैलने में कोई कसर नहीं रहेगी। मरता, क्या नहीं करता ? सिर्फ लफ्फाजी से काम नहीं चलेगा। इस वक्त जरुरी यह है कि लोगों के हाथ में पैसा पहुंचे ताकि वे खरीददारी कर सकें। सरकार शीघ्र ही आवश्यक कदम उठाएगी लेकिन सरकार से भी ज्यादा समाज की जिम्मेदारी है। कई गुरुद्वारे, मंदिर, जैन-संस्थाएं, मस्जिदें, गिरजे, संघ और समाज-सेवी संस्थाएं उत्तम पहल कर रही हैं लेकिन राजनीतिक पार्टियां क्या कर रही हैं ? इनके 10-12 करोड़ सदस्य यदि दो-दो तीन-तीन परिवारों की जिम्मेदारी भी ले लें तो देश के करोड़ों गरीबों और वंचितों को महामारी की मार से बचाया जा सकता है। समझ में नहीं आता कि हमारा खबरतंत्र, खास तौर से हमारे टीवी चैनल महामारी से लड़ने की बजाय अपनी सारी शक्ति किसी एक व्यक्ति की हत्या या आत्महत्या की पहेली को सुलझाने या उलझाने में लगे हुए हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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