समस्त अयोध्या प्रकरण (आज का) के सन्दर्भ में लालकृष्ण आडवाणी प्राचीन ग्रीक नाटकों के त्रासद हीरो लगते हैं| ऐसा नायक जो निन्यानवे तक चढ़कर फिसल जाता है| सांप-सीढ़ी के खेल की तरह| बस एक रन से शतक छूट जाता है| प्रधानमंत्री नहीं बन पाए| ‘उप’ ही बन सके|
लालकृष्ण आडवाणी अयोध्या काण्ड के शिल्पी थे|
तब पार्टी के मुंबई अधिवेशन (अप्रैल 1980) में बजाय अटल के आडवाणी अध्यक्ष बने| तब तक भाजपा निचले पायदान पर रही|
मगर वाह रे आडवाणी जी ! 1989 बोफोर्स मसले पर वीपी सिंह की सरकार बनवा दी| साल भर हुए फिर सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा निकालकर भाजपा को सत्ता के ऊँचे पायदान तक ले आये|
भाजपा उठती गई| मगर प्रधानमंत्री हर बार अटलजी ही बनते रहे| तेरह दिन के लिए, तेरह मास, फिर पांच वर्ष के लिए| अखरनेवाली बात थी कि वोट मिले आडवाणी जी की मशक्कत के कारण| मगर पुरस्कार पा गए अटल जी|
लालचन्द किशिनचंद आडवाणी उस खेतिहर श्रमिक की भांति लगे जिसने गोड़ाई की, रोपाई की, बोया और निराई की| मगर फसल काट ले गए अटल जी| आडवाणी जी उस असली वंचित भारतीय कृषक का प्रतिरूप बन गए |
आज भी यही हुआ|
सारा कष्ट झेला आडवाणीजी ने अयोध्या पर, लेकिन क्या मिला?
बस जेल जाने से बच गए|
यदि कहीं इस बानवे साल वाले को सजा हो जाती तो ?
कुछ ऐसा ही हुआ था इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी के वक्त|
बंगलौर में संसदीय समिति के लिए आडवाणी जी तथा अटल जी गए| वहीँ कैद हो गए| आडवाणीजी को उन्नीस माह लगे रिहाई में| अटल जी बस एक डेढ़ दिन बाद ही पैरोल पर छूट गए थे| घर ही पर आराम फरमाते रहे| चुनाव जीते और मलाईदार विदेश मंत्रालय पाया|
इन दोनों राजनायकों के प्रति भाग्यलक्ष्मी और राज्यलक्ष्मी ने सदा सौतेला व्यवहार किया| अर्थात कर्मफल के अनुसार पूर्वजन्म ही कारण बताया जायेगा| हिन्दू तसल्ली कर लेता है कि “शायद भाग्य में यही बदा था|”
मगर एक श्रमजीवी के नाते मेरी तो अपनी राय है “जैसा काम वैसा दाम|” अर्थात जो जेल गया, यातना भुगती, उसे पारितोष मिलना चाहिए था|
फिर शंका उठेगी कि हस्तरेखा ही लघु रही तो, विधाता क्या करे ?
वर्ना सोचिये ओवरसियर किसान एच डी देवेगौड़ा, कभी भी जेल न जाने वाले इंद्र कुमार गुजराल और सबसे बड़ा अजूबा मनमोहन सिंह चोटी तक चढ़े|
आडवाणी ढैय्या तक नहीं छू सके ?
अटल बिहारी वाजपेयी जी भी कारसेवा करने लखनऊ दो दिन पूर्व आये थे| अमौसी हवाई अड्डे पर जिलाधिकारी अशोक प्रियदर्शी, IAS, ने उन्हें चुपचाप वापसी टिकट देकर जहाज पर बैठा दिया |
फिर दूसरे दिन दिल्ली से उनका बयान आया : “मेरे जीवन का यह (6 दिसंबर 1992) कालिमापूर्ण दिवस है|” तभी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने संसद में वचन दिया था कि बाबरी मस्जिद दुबारा बनेगी| अटल जी का मौन समर्थन रहा|
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच नये सहस्त्राब्दि वर्ष के लिए मतभेद था कि सन् 2000 को गीता वर्ष घोषित किया जाये अथवा ईसा का साल। दोनों की सोच का फर्क रहा, जिसके माफिक वे ईश्वर को देखते हैं। आडवाणी कुरूक्षेत्र तक ही कृष्ण को बांधना चाहते थे तो अटल उनका विराट, विश्वव्यापी आकार देखते थे।
त्रासदी यह थी कि ये दोनों राष्ट्रनेता व्यक्तिगत विषम धरातल से ऊपर उठे नहीं।
जब 1980 में मुम्बई में भाजपा की स्थापना हुई थी तभी से दोनों की सियासी प्रतिद्वंद्विता आरंभ हो गयी थी। आडवाणी की इच्छा थी कि पार्टी ध्वज केवल केसरिया हो। अटल ने उसे दुरंगा बना दिया, सफेदी जोड़ दी। शौर्य का प्रतीक है केसरिया, उत्सर्ग का भी। साफगोई की सूचनावाला है सफेद रंग, समर्पण का भी। लेकिन भाजपाई दुरंगी पताका कांग्रेस के तिरंगे से एक ही पायदान नीचे थी।
अटल और आडवाणी में विभिन्नता का आधार पर्यावरण से भी उत्पन्न हुआ।
दोनों हिमालयी नदियों के तट पर रहे। यमुनातीर पर बटेश्वर (आगरा) से अटल बिहारी वाजपेयी और लद्दाख से बही सिंधु नदी के समीपवर्ती नगर कराची से लालकृष्ण आडवाणी जुडे़ थे। दोनों श्रमजीवी पत्रकार थे| दैनिक ‘वीर अर्जुन’ में अटल तथा साप्ताहिक ‘आर्गेनाइजर’ में आडवाणी कार्यरत थे। अपनी मातृभूमि सिंध गंवाकर आडवाणी ने गुजरात के कच्छ में पनाह ली। वहां युवा लालचन्द को पिता किशिनचंद ने पाला पोसा। यही लालचन्द किशिनचन्द आडवाणी बाद में लालकृष्ण कहलाये। अटल को दो-दो भू-भागों (उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश) ने अपनाया।
अटल-आडवाणी के अंतर्विरोधों से ग्रसित भाजपा को कई दफा राह खोजनी पड़ी कि दोराहे पर से किधर जायें। अटल हर बार हिन्दुत्व पोषकों को अपनी शर्त मानने पर विवश कर देते थे। भाजपा की मजबूरी ही अटल को जरूरी बनाती रही। भाजपा के लिए वे चुनावी बीमा पालिसी बन गये। कभी भारतीय जनसंघ को हिन्दुत्व की भागीरथी होने का दावा था। अब भाजपा तमाम दलबदलुओं और मौकापरस्तों के सम्मिश्रण से दूषित हुगली नदी में बदल गयी। आडवाणी वापस गंगोत्री वाली शुद्धता के हिमायती हैं, तो अटल नये-नये संगमों का आयोजन करते रहे।
नरेंद्र मोदी शायद बीच की राह खोजते हैं |
(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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