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Thursday, October 22, 2020

छुई—मुई का पौधा क्यों बना रहे इस्लाम


इस्लाम के नाम पर फ्रांस में कितना वीभत्स कांड हुआ है, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एक मुस्लिम छात्र ने एक फ्रांसीसी अध्यापक का गला रेतकर उसकी हत्या कर दी। हत्यारे का नाम अब्दुल्ला अजारोव है और उस अध्यापक का नाम सेमुअल पेटी था। अब्दुल्ला की उम्र 18 साल है और उसके माता-पिता चेचन्या के मुसलमान हैं। चेचन्या रुस का वह मुस्लिम इलाका है, जहां के उग्रवादियों का मुकाबला करने के लिए कुछ साल पहले रुसी सरकार ने थोक बम-वर्षा की थी। अब्दुल्ला ने सेमुअल पेटी की हत्या इसलिए कर दी कि उसने अपने छात्रों को अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में पढ़ाते हुए पैगम्बर मोहम्मद के कुछ कार्टून दिखा दिए थे। उस अध्यापक के विरुद्ध हत्यारे के पिता तथा कई मुल्ला-मौलवियों ने इंटरनेट पर निरंकुश अभियान छेड़ दिया था।

सेमुअल पेटी की हत्या से पूरे यूरोप में रोष की लहर फैल गई है। फ्रांसीसी सरकार ने अब्दुल्ला के साथ-साथ दर्जनों ऐसे मुसलमानों को गिरफ्तार कर लिया है, जिनके बयानों, इशारों और साजिशों के कारण यह हत्याकांड हुआ है। पेरिस के उत्तर-पश्चिम में बनी मस्जिद पर अगले छह माह के लिए ताले ठोक दिए गए हैं। फ्रांस के गृहमंत्री ने कहा है कि हमारे ‘‘गणराज्य के दुश्मनों को हम एक मिनिट भी चैन से नहीं बैठने देंगे।‘’ ‘शहीद अध्यापक’ के लिए फ्रांसीसी सरकार ने अपने सर्वोच्च सम्मान की घोषणा की है।

फ्रांस के राष्ट्रपति इम्नेएल मेक्रो ने कुछ दिन पहले ही घोषणा की थी कि वे ‘इस्लामी अलगाववाद’ के खिलाफ जोरदार अभियान चलाएंगे। आजकल लगभग सभी यूरोपीय देशों में मुसलमान लोग रहने लगे हैं। जब से अफ्रीका और एशिया के देश आजाद हुए हैं, उनके हजारों मुसलमान नागरिक काम की तलाश में यूरोप में आ बसे हैं। यूरोपीय लोगों ने इन मुसलमानों को इसलिए भी अपने यहां बसने दिया कि एक तो ये लोग मेहनत-मजदूरी के काम करते हैं और सस्ते में उपलब्ध हो जाते हैं। अल्पसंख्यक होने के कारण यों भी ये दबे-दबे से रहते हैं।
फ्रांस में गैर-फ्रांसीसी मुसलमानों की संख्या 50 से 60 लाख तक है। ये कुल जनसंख्या के लगभग 9-10 प्रतिशत हैं। फ्रांसीसी सरकार ने इन पर काफी खोज-बीन करके आंकड़े जमा कर रखे हैं। इन अफ्रीकी, तुर्की और मध्य एशियाई मूल के नागरिकों ने प्रायः फ्रांसीसी भाषा और संस्कृति से काफी ताल-मेल बिठा लिया है लेकिन अभी 40-50 प्रतिशत मुसलमान ऐसे हैं, जो दिन में पांच बार नमाज़ पढ़ने, रोज़ा रखने, पर्दा करने और मदरसों की तालीम में विश्वास करते हैं। इस समय फ्रांस में 2300 मस्जिदें सक्रिय हैं। लगभग एक लाख फ्रांसीसियों को ईसाई से मुसलमान बनाया गया है।
फ्रांसीसी सरकार को सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि युवा मुसलमानों में अब कई आतंकवादी होते जा रहे हैं। एक आंकड़े के मुताबिक 75 प्रतिशत युवा उग्रवाद में विश्वास करने लगे हैं। कुछ अरब देशों की मदद से ये युवक सारे यूरोप में आतंक का बड़ा जाल बिछा रहे हैं। पैगम्बर के कार्टूनों को लेकर 2005-06 में डेनमार्क के एक प्रसिद्ध अखबार के खिलाफ इतना भयंकर अभियान चला था कि इस्लामी देशों और यूरोप में लगभग ढाई सौ लोग मारे गए थे। 2015 में इन्हीं कार्टूनों को लेकर फ्रांस की प्रसिद्ध व्यंग्य-पत्रिका ‘चार्ली हेब्दो’ के 12 पत्रकारों की हत्या कर दी गई थी। इस पत्रिका में इस्लाम ही नहीं, ईसाई और यहूदी मजहबों के विरुद्ध भी व्यंग्य-चित्र और लेख छपते थे।
धार्मिक उग्रवाद के विरुद्ध अब से 15-20 साल पहले ही फ्रांसीसी सरकारों ने कार्रवाई शुरु कर दी थी। राष्ट्रपति ज़ाक शिराक ने घोषणा की थी कि फ्रांस ‘लायसिती’ की नीति पर चलता है याने कोई भी मजहबी कानून राष्ट्रीय कानून से ऊपर नहीं हो सकता है। फ्रांसीसी क्रांति से उपजे इस सिद्धांत पर 1905 में मुहर लगी, जब चर्च की दादागीरी के खिलाफ फ्रांसीसी संसद ने कमर कस ली थी। ज़ाक शिराक के ज़माने में सरकारी स्कूलों में किसी छात्र या छात्रा को ईसाइयों का क्राॅस या यहूदियों का यामुका (टोपी) या मुसलमानों का हिजाब पहनकर आने की अनुमति नहीं थी। मजहबी छुट्टियों की मनाही थी। ईद और योम किप्पूर के दिन भी छुट्टियां नहीं होती थीं।

यूरोप के लोगों में सहिष्णुता का वह भाव नहीं है, जो भारत-जैसे देशों में है। वहां के ईसाई उग्रवादी संगठनों ने कई मस्जिदें गिरा दी हैं, वे धर्म-परिवर्तन के सख्त विरोधी हैं। वे मुसलमानों को रोजगार देने का भी विरोध करते हैं। वे सारे मदरसों को बंद करने की मांग करते हैं। उन्होंने भी यूरोप के कई देशों में अपना जाल बिछा लिया है। वहाँ ईसाई उग्रवाद और इस्लामी उग्रवाद में सीधी टक्कर शुरु हो गई है।
यूरोप के लोग मजहब के मामले में बिल्कुल आजाद रहना चाहते हैं। वे अपनी अभिव्यक्ति की आजादी को किसी मजहब से ज्यादा पवित्र मानते हैं। वे इस्लाम, कुरान और पैगम्बर मुहम्मद की भी वैसी ही आलोचना करना अपना अधिकार समझते हैं, जैसे कि वे माता मरियम, ईसा मसीह या मूसा की करते हैं। अपने छात्र-काल में मैंने कर्नल इंगरसोल की ऐसी किताबें ईसाइयत के बारे में पढ़ी हैं, जो महर्षि दयानंद के ‘सत्यार्थप्रकाश’ से भी अधिक आक्रामक थीं। वे खुद पादरी के बेटे थे लेकिन उन्होंने ईसाइयत के परखचे उड़ा दिए थे। दयानंद ने भी अपने पिता के हिंदू धर्म, कुरान और बाइबिल पर बहुत ही तर्कपूर्ण और साहसिक बातें लिखी हैं। लेकिन उनकी और उनके कई अनुयायियों की भी हत्या कर दी गई थी। हालांकि उनका उद्देश्य ईसा मसीह या पैगम्बर साहब की निंदा करना नहीं था।

अब दुनिया काफी बदल चुकी है। यूरोपीय लोग यदि यह ध्यान रखें कि जिन बातों को आप पसंद नहीं करते, उन्हें आप न करें लेकिन उनके लिए दूसरों का दिल दुखाना या अपमान करना उचित नहीं है तो बहुत-सी समस्याओं का हल अपने आप निकल सकता है और दुनिया के मुसलमानों को भी सोचना चाहिए कि क्या इस्लाम इतना छुई-मुई पौधा है कि किसी का फोटो छाप देने या उस पर व्यंग्य कस देने से वह मुरझा जाएगा ? अरब जगत की जहालत (अज्ञान) दूर करने में इस्लाम की जो क्रांतिकारी भूमिका रही है, उसे देश-काल के मुताबिक ढालकर अपने साथ-साथ दूसरों का भी भला करना इस्लाम का लक्ष्य क्यों नहीं होना चाहिए ?

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

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