शरीफों का स्पोर्ट क्रिकेट है। ऐसी मान्यता है। मगर सियासत में सदाचार लाजिमी नहीं होता। कम से कम व्यवहार से तो यही दिखता है। इसीलिए जब प्रात: एक अखबारी शीर्षक देखा तो कौंधना स्वाभाविक था। आज के ''नवभारत टाइम्स'' (सोमवार, 4 जनवरी 2021) मुखपृष्ठ पर चार—कालम शीर्षक था : ''क्या टीम इंडिया के खिलाड़ियों ने बीफ खाया?'' भक्षकों के नामों में थे पंडित रोहित शर्मा, पंडित ऋषभ पंत आदि। आस्ट्रेलियायी दौरे पर ये पांचों खिलाड़ी कोरोना नियम के कारण पहले ही तन्हा रखे गये है। क्वारंटीन में हैं। मुद्दा यहां भोज्य पदार्थ में वर्जना का नहीं, वरन् खेल के मर्यादित नियमों वाला है। याद होगा कुछ समय पूर्व कर्नाटक के पंडित रवि शास्त्री ने टीवी पर गाय की हड्डी चूसते हुये कहा था : ''मेरे माता—पिता रुष्ट होंगे। पर बड़ा जायकेदार है यह।'' ऐसा ही एक त्रासदपूर्ण खबरिया वाकया हुआ था जब भारतीय क्रिकेट टीम 1974 में इंग्लैण्ड के दौरे पर गई थी। सलामी बल्लेबाज सुधीर नाईक लंदन के माल स्टोर से मोजे चुराते पकड़े गये थे। टीम मैनेजर कर्नल हेमू अधिकारी ने जुर्माना अदाकर मामला रफा—दफा कराया था।
अमूमन खान—पान में चाहत अथवा परहेज निजी स्वतंत्रता का मामला होता है। खुले आम न सही, तो छुपे में तो खाते ही होंगे। मसलन लेखक स्टेन्ली वालपोर्ट की पुस्तक ''जिन्ना आफ पाकिस्तान'' में एक दृष्टांत का स्पष्ट उल्लेख है। इस्लाम के श्रेष्ठतम प्रतिपादक मियां मोहम्मद अली जिन्ना की पसंद पोर्क (शूकर का मांस) था। मोहम्मद करीम छागला की किताब ''रोसेज इन दिसंबर'' में भी इस घटना का जिक्र है। राष्ट्रपति जनरल मोहम्मद जियाउल हक ने लेखक वालपोर्ट से कई बार आग्रह किया था कि वह इस्लामी पाकिस्तान के संस्थापक से संदर्भित इस विवादित बात को हटा दें। किताब से इस ''स्वादिष्ट व्यंजन'' के इस प्रसंग को ही अपमार्जित कर दें। लेखक ने मांग ठुकरा दी। मुस्लिम लीग के कायदे आजम के निजी सहायक रहे मियां मोहम्मद छागला बंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हुये। नेहरु कबीना में शिक्षा मंत्री रहे। उनके अनुसार जिन्ना उम्दा शराब पीते थे। जबकि पैगंबरे इस्लाम ने दारु को पाप बताया था।
लौटे क्रिकेट पर। गत माह एडलेड मैच में आस्ट्रेलिया से खेले टेस्ट में 36 रन पर सभी भारतीय आउट हो गये थे। इस पर बॉलर सरदार बिशन सिंह बेदी ने टिप्पणी की थी कि 1974 में इंग्लैण्ड गयी उनकी टीम लार्ड्स मैदान (लंदन) में निम्नतम स्कोर 42 रन पर आउट हुई थी तो बड़ा मलाल था, सदमा पहुंचा था। मगर एडलेड के 36 रन ने स्कोर इतना नीचे गिरा कर तनिक राहत दी। तब अजित वाडेकर कप्तान थे। उनका खेल तभी से सदैव के लिये खत्म हो गया।
ब्रिटेन के उस दौरे पर बेदी की टिप्पणी बड़ी दुखदायिनी है। करोड़ों का मुनाफा कमाने वाले क्रिकेट बोर्ड ने ऐसे घटिया स्वेटर दिये थे कि भारतीय खिलाड़ी लंदन की सर्दी में ठिठुरते रहे। एक सिख वस्त्र व्यापारी ने बेदी से आग्रह कर नये स्वेटर दान दिये थें (इंडियन एक्सप्रेस, 4 जनवरी 2021, पृष्ठ—9)।
किन्तु पराजय, उठाईगिरी, सार्वजनिक बदनामी से कहीं अधिक अपमान का विषय इस भारतीय टीम का रहा कि लंदन में भारतीय उच्चायुक्त भवन में। श्री ब्रजकुमार नेहरु (जवाहरलाल नेहरु के भतीजे) ने राज दूतावास के समारोह में भारतीय टीम की जो उलाहना की, बल्कि फटकार लगायी, वह घाव पर नमक का काम कर गई। नेहरु का नजरिया था जैसे देश के खिलाड़ी नहीं, वरन लफाड़ियें आ गये हों। कप्तान अजित वाडेकर की आंखों में आंसू आ गये थे। उच्चायुक्त साहब झिड़कते रहे, सिर्फ इसीलिये कि टीम कुछ देर से डिनर पर पहुंची थी। इन खिलाड़ी—अतिथियों में उस वक्त शीर्ष के क्रिकेटर थे जैसे बी.चन्दशेखर, सुनील गावस्कर, ई.प्रसन्ना, एस. वेंकटराघवन, जी. विश्वनाथ, विकेट कीपर फार्राख इंजीनियर आदि।
भला बीके नेहरु को भारतीय राष्ट्रवाद से क्या सरोकार? वे अंग्रेजों की दासतावाली सेवा इंडियन सिविल सर्विस (आईईएस) में नौकर थे। जब स्वाधीनता संग्राम में जवाहरलाल नेहरु जेल में थे, तो उनके यह भतीजे साहब ब्रिटिश राज के जिलाधिकारी बनकर गांधीवादी सत्याग्रहियों पर लाठी—गोली बरसा रहे थे। कैसे तुलना करें ताकि सम्यक विरोधाभास उजागर हो इन दो स्वजनों के दरम्यान? चाचा बागी तथा भतीजा जी—हुजूरी।
अंग्रेजों के भाग जाने के बाद भी स्वाधीन भारत में यह गुलाम सरकारी अफसर बीके नेहरु सात राज्यों (कश्मीर और गुजरात मिलाकर)के गवर्नर रहे। लंदन के बाद वाशिंगटन में भारतीय गणराज्य के राजदूत रहे। यूरोपीय रमणी मैगडोलीना से 1932 में शादी रचायी। सम्राट द्वारा एमबीई खिताब (अर्थात ब्रिटिश साम्राज्य के झण्डाबरदार) से नवाजे गये। इंदिरा गांधी के इस चचेरे भ्राता बीके नेहरु ने आत्मकथा लिखी जिसका शीर्षक था ''नाइस गाइज फिनिश सेकण्ड'' (भद्रलोक दोयम पद पर लटके रहते हैं)। कैसा फूहड मजाक है? भोण्डा कथन! सबसे मलाईदार पदों पर ब्रिटिश राज में और स्वाधीन भारत में भी आसीन होकर बीके नेहरु की लालच द्विगुणित होती रही। तो ऐसे भारतीय राजदूत यदि अपने ही स्वराष्ट्रीय अतिथियों को अपने आवास पर अपमानित करें तो इससे भारत राष्ट्र—राज्य की बेइज्जती हुयी थी। तब हमारे क्रिकेटर खून की घूंट पीकर रहे गये। प्रण ले चुके थे कि दूतावास में शराब तो छुयेंगे ही नहीं। मगर नेहरु को कांग्रेसी शासक राज्यपाल नामित करते रहे। सजा तो मिली ही नहीं।
(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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